Posted by: डॉ. रमा द्विवेदी | अक्टूबर 4, 2011

अनुभूति का बोध ( क्षणिका)

सदियाँ गुजर जाती हैं
अनुभूति का बोध उगने के लिए
शताब्दियाँ गुजर जाती हैं
अनुभूति को पगने के लिए
अनुभूति मांगती है दिल की सच्चाई
सच्चाई में तप कर खरा उतरना
बहुत दुर्लभ प्रक्रिया है
क्षण -क्षण बदलते मन के भाव
अनुभूति की नींव
बारम्बार हिला देते हैं |

डा. रमा द्विवेदी
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प्रतिक्रियाएँ

  1. क्षण -क्षण बदलते मन के भाव
    अनुभूति की नींव
    बारम्बार हिला देते हैं |
    शायद परिस्थितयों के अधीन हो जाता है मन,और अनुभूति अलग-अलग रूप ले लेती है…

  2. आपकी यह क्षणिका बहुत भावपूर्ण और वैचारिक सौन्दर्य से सम्पृक्त है ।इन पंक्तियों का तो कहना ही क्या-
    “शताब्दियाँ गुजर जाती हैं
    अनुभूति को पगने के लिए
    अनुभूति मांगती है दिल की सच्चाई”

  3. इंदु जी एवं हिमांशु जी ,
    आप सबकी आत्मीयता पूर्ण प्रतिक्रिया से सृजन की नई स्फूर्ति मिलती है …बहुत-बहुत दिल से शुक्रिया …..

  4. सच्चाई में तप कर खरा उतरना
    बहुत दुर्लभ प्रक्रिया है…
    बिलकुल सही !

  5. वाणी गीत जी ,

    हार्दिक आभार …


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