हर एक के सुख की परिभाषाएं अलग होती हैं,
सभ्यता का पाठ पढानें वाली पाठशालाएं अलग होती हैं।
अनुभव प्राप्त करने की कार्यशालाएं अलग होती हैं,
जो प्रेम में सराबोर कर दें,वे मधुशालाएं अलग होती हैं॥कोई अध-छलकत गगरी बन इतराता है,
कोई आसमां को छूकर भी झुक जाता है।
कोई दूसरों को मिटा करके सुख पाता है,
कोई दूसरों को बसाने में मिट जाता है॥कोई सुख-सुविधाओं में रम जाता है,
कोई दौलत कमाने में खट जाता है।
कोई आत्म्सम्मान लुटा करके कुछ पाता है,
कोई आत्म्सम्मान बचाने में मिट जाता है॥कोई खुश है परिश्रम की रोटी कमाकर,
कोई खुश है हराम की कमाई पाकर।
कोई खुश है बैंक बैलेन्स बढाकर,
कोई खुश है अपनी पहचान बनाकर॥डा. रमा द्विवेदी
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Posted by: डॉ. रमा द्विवेदी | अक्टूबर 27, 2006
परिभाषाएं अलग-अलग
संवेदना की अनुभूतिय में प्रकाशित किया गया
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और हम खुश हैं आपकी रचनाएँ पढ़कर॰॰॰॰ 🙂
लिखते रहियेगा!!!
By: गिरिराज जोशी on अक्टूबर 27, 2006
at 1:36 अपराह्न
सुंदर भाव हैं, बधाई.
By: समीर लाल on अक्टूबर 27, 2006
at 4:26 अपराह्न
कोई अध-छलकत गगरी बन इतराता है,
कोई आसमां को छूकर भी झुक जाता है।
कोई दूसरों को मिटा करके सुख पाता है,
कोई दूसरों को बसाने में मिट जाता है॥
बहुत गहरी बात कही है आपने।
By: ratna on अक्टूबर 27, 2006
at 4:44 अपराह्न
कोई खुश है अपनी पहचान बनाकर ।
विचारणीय एवं यथार्थ रचना ।
सधन्यवाद ।।
By: Prabhakar Pandey on अक्टूबर 28, 2006
at 12:33 पूर्वाह्न
बहुत सुन्दर कविता, साधूवाद!
By: सागर चन्द नाहर on अक्टूबर 28, 2006
at 9:05 पूर्वाह्न