आदरणीया डॉ. रमा द्विवेदी जी की साहित्य जगत में एक विशिष्ट पहचान है। उनके तीन कविता संग्रह पूर्व में ही प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी लघु कथाएँ अनेक पत्र पत्रिकाओं में व फेसबुक के समूहों में प्रकाशित होतीं रहतीं हैं, तथा मैं उनका नियमित पाठक हूँ। 

“मैं द्रौपदी नहीं हूँ” लघुकथा संग्रह में कुल 134 पृष्ठ व 111 लघुकथाएँ हैं, जो सामाजिक विद्रूपताओं और विसंगतियों पर प्रहार करतीं हैं। लघुकथाओं की विषय वस्तु समाज में नित्य प्रति घटित होने वाली अपने आसपास की घटनाओं से ली गयी प्रतीत होती है। सभी लघुकथाएँ पठनीय व पाठक को सोचने पर विवश करके झकझोरने वालीं हैं। इन कथाओं के माध्यम से आज के समाज में महिला उत्पीड़न व इसके विरुद्ध आधुनिक नारी की बुलंद आवाज पाठक व समाज तक पहुँचाने में लेखिका पूर्णतः सफल रहीं हैं। इस संग्रह में गम्भीर विषयों के साथ कविता चोर, टैगियासुर, लिव इन संबंध, कोचिंग, श्रृंगार, कोरोना,सतयुग आ गया, प्री वेडिंग शूट, बैचलर पार्टी, पिंड दान, चुनाव प्रचार, मी टू, सरोगेसी इत्यादि समसामयिक व नैतिक विषय भी लेखिका की पैनी नज़रों से नहीं बच सके।

पुस्तक का शीर्षक पढ़कर ही पाठक के दिमाग में आज की शक्ति स्वरूपा व सक्षम नारी का प्रतिरोध का स्वर गूँज जाता है तथा पुस्तक की विषयवस्तु के बारे में पूर्वानुमान हो जाता है। “मैं द्रौपदी नहीं हूँ” एक ऐसी स्त्री की कथा है जो अपने आत्मसम्मान व इज़्ज़त की रक्षा हेतु घर में ही संघर्षरत है। उसका पति परदेश में है तथा देवर की उस पर बुरी नज़र है। लोकलाज के कारण यह बात वह गाँव व घर में किसी से नहीं कहती है। पति के अवकाश पर आने पर सारी बातें बताने के बावजूद उसका पति कह देता कि यह सब चलता है। तब वह आत्मविश्वास के साथ उद्घोष करती है कि “मैं द्रौपदी नहीं हूँ।” “खरीदी हुई औरत” नामक कथा में निर्धन व अशिक्षित समाज में स्त्री की खरीद फरोख्त को रेखांकित किया गया है। इस प्रकार की घटनाएँ कुछ लोगों को अविश्वसनीय लग सकतीं हैं, लेकिन कुछ क्षेत्रों में यह परंपराएँ व विसंगतियाँ आज भी हैं।

“लोभी गुरु लालची चेला”, “ठगुआ कवि”, “प्रशंसा का भूत”, हर धान बाइस पसेरी जैसी कुछ लघुकथाएँ सोशल मीडिया की विसंगतियों को इंगित करतीं हैं तो कुल गोत्र जैसी लघुकथा में आज के समाज में कुंडली मिलान के औचित्य का प्रश्न उठाया है। बुजुर्गों के प्रति बेटे बहुओं की क्रूरता व गैर जिम्मेदारी को रेखांकित करतीं ‘बहू से बचाओ’, ‘अपनी-अपनी विवशता’, व ‘सही निर्णय’ जैसी लघुकथाएँ भी इस संग्रह में हैं।

विद्वान लेखिका ने अपने ‘अंतर्मन के उद्गार’ में कहा है कि “इस लघुकथा संग्रह में नारी मन की पीड़ा, सामाजिक विसंगतियाँ, अंधविश्वास व रूढ़िवादी पंम्पराओं में पिसती स्त्री, जीवन की विभीषिकाओं व विडंबनाओं के साथ-साथ अत्याधुनिक युगबोध से उपजीं विसंगतियों, प्रश्नों एवं संभावित विमर्श को इसमें समाहित किया गया है।” यद्यपि यह लेखिका का प्रथम लघुकथा संग्रह है,किंतु अधिकांश लघुकथाएँ किसी न किसी विसंगति को उजागर करतीं हैं। 

यह पुस्तक पठनीय के साथ-साथ संग्रहणीय भी है। मुझे विश्वास है कि पाठकों द्वारा इस पुस्तक को पसंद किया जाएगा। विदुषी लेखिका आदरणीया डॉ.रमा द्विवेदी जी को हार्दिक बधाई व उनके उज्जवल भविष्य की कामना के साथ –

         -हरिओम श्रीवास्तव –

से.नि.वाणिज्यिक कर अधिकारी

            भोपाल, म.प्र.

वर्तमान पता- सिएटल,(वाशिंगटन)

 मोबाइल – +919425072932

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Posted by: डॉ. रमा द्विवेदी | फ़रवरी 28, 2024

मैं द्रौपदी नहीं हूँ  : युग बोध का प्रतिबिंबन

संप्रेषण,मानवीय चेतना का अनिवार्य सत्य है जिसे साहित्य के संदर्भ में हम  स्थूल से सूक्ष्म के निरुपण -यात्रा के तहत एक शाश्वत सत्य के रूप में देखते हैं। सत्य है, साहित्य के संदर्भ में यही मानवीय चेतना लघुतम संप्रेषण से संवहित हो अभिव्यक्ति के‌ माध्यम में रुपायित हो लघुकथा का रूप ले‌ लेती है। साहित्य की एक ऐसी स्वतंत्र  सशक्त , संप्रेषित विधा, जो रचना उद्यमिता के अंतर्गत,संवेदना को केंद्र में रखकर, अपने लघु रूप में होने के बावजूद, समकालीन समाज के संपूर्ण यथार्थ में व्याप्त,जीवन मूल्यों को उद्घाटित करने का माद्दा रखती है। कथाकार,रमा द्विवेदी जी की पुस्तक , “मैं द्रौपदी नहीं हूं” इन्ही जीवन मूल्यों के उद्घाटन की अगली कड़ी है। शब्दांकुर प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित,133‌ पृष्ठों के इस  पुस्तक में ,कुल मिलाकर 102 लघुकथाओं का संकलन है । 

      मैं  द्रौपदी नहीं हूं, शीर्षक नाम से

मुद्रित इस पुस्तक में,द्रौपदी के पौराणिक मिथक में सामाजिक चेतना भरती कहानी की नायिका मिथकीय युग का आह्वान कर , इतिहास के पन्ने को फिर से पलटने के लिए नहीं बल्कि उसमें स्त्री सत्ता के सशक्त निर्णयात्मक भाव का प्रतिनिधित्व कर आधुनिक संदर्भ में उसी इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ने को तैयार है। शीर्षक में परिलक्षित यह स्त्री  पुरुष सत्तात्मक समाज के छल‌ बल  को स्वीकार कर  उसके दैहिक साम्राज्य पर पुरूष की गंदी घिनौनी सत्ता को स्वीकार करने को बिल्कुल तैयार‌ नहीं। वह अपनी अस्मिता के लिए पुरुष -तंत्रों की ओर प्रश्नों की लड़ी लिए सिसकती चित्कारती स्त्री नहीं बल्कि, संपूर्ण सशक्तता से समाधान के साथ तैयार‌ खड़ी स्त्री है जो संघर्षों का सामना करने के  लिए तैयार है ,अकेली तैयार है ,पूरी तरह तैयार है । 

            अपने मूल‌ में, समसामयिक समाज के यथार्थ -पयोधियों और सरिताओं के कड़वे मीठे, बूंदों को जीवन मूल्यों की गगरी में भरता यह रमा द्विवेदी जी का यह लघुकथा संकलन, समाज के सभी वर्गों में व्याप्त क्षरण को ,फिर चाहें वे पारिवारिक हों या राजनीतिक, सामाजिक हों या धार्मिक या फिर सांस्कृतिक  सभी चेतनाओं के बिखरे -टूटे,खंडित होते प्रतिबिंबों को एक साथ जोड़ने की सफल कोशिश की है। समाज के व्यक्तियों की दायित्वहीनता को केंद्र में रखकर , मानवीय मूल्यों में आई गिरावट,उनके सैद्धांतिक और वैचारिक दृष्टिकोणों में आए अंधेपन की शिथिलता को यूं एक जगह समेटकर ,इतनी सरलता से पाठकों के मध्य‌ रखे इस संकलन की सभी कहानियों में युग चेतना का बोध है। फिर चाहे वह पौराणिक मिथक को सामाजिक चेतना से जोड़ती कहानी , मैं द्रौपदी नहीं हूं हो या फिर साहित्य में व्याप्त बाजारीकरण को उजागर करने के उद्देश्य से लिखी लघुकथा , ठगुआ कवि ,लोभी गुरू लालची चेला ,कविता चोर,सरतार बनिया, नून चबेना  ,संपादक,मूल लेखक कैसे ,रिमार्क हो। सभी युग बोध की अभिव्यक्ति से अभिषिक्त हैं। हालांकि यहां सभी लघुकथाओं को विश्लेषित कर पाना मुश्किल होगा, फिर भी मैं कुछ लघुकथाओं की चर्चा अवश्य करना चाहूंगी।स्त्री विमर्श के केंद्र में लिखी लघुकथा खरीदी हुई औरत ,कागज का पुर्जा,नियति का खेल,अहंकार ,व्रत की विवशता, गिरावट, चिंतन और‌ चुनौती, राज खुल गया यह सभी पित्रसत्तात्मक व्यवस्था के संस्कारों को उद्धृत करते प्रतीत होते हैं। समय की नब्ज को समझतीं,महसूस करतीं और उसे गहराई से थाम कर रखीं इस संकलन की लेखिका, रमा द्विवेदी की अन्य कथाएं यथा ; क्या बताऊं यार, दहशत , धोखे कैसे कैसे जहां एक ओर समसामयिक विवाह संस्था के लिए चुनौती बनी समलैंगिक संस्कृति को पाठकों के समक्ष रखा है तो वहीं समाज के मूल‌ तबके की विकृत मानसिकता को भी बहुत सशक्तता से पटल पर रखा है। विध्वंसकारी पोर्न   समलैंगिक संस्कृति से टूटते रिश्तों के माध्यम से उन्होंने पाठकों को यथार्थोन्मूख बनाने की कोशिश की है। समसामयिक कहानियों की बात करें तो कोरोना संक्रमण को लक्षित कर लिखी लघुकथाएं यथा; श्रृंगार की जरूरत क्या है,कोरोना से प्रश्न काफी महत्वपूर्ण संवाद करते नजर आते हैं। एक्सचेंज मैरिज ,दूल्हे की बोली,नोट-शराब और खाना ,हंसना मना है , मदिरालय खुल गए अपनी अपनी विवशता , ललचाई नजरें और टैगियासुर जैसी सभी लघुकथाओं में आज के समाजिक चेतना की प्रकृति में ह्रास होते संदर्भ दिखाई देते हैं बल्कि क्षणभंगुर उपलब्धयों के लिए बेसब्र होते मानव की मनोवैज्ञानिक विकृतियों का दस्तावेज भी प्रस्तुत होता दिखता है।

     कुल मिलाकर देखें तो लेखिका रमा द्विवेदी अपनी इस संकलन की समस्त लघुकथाओं की बुनावट में, न सिर्फ रचना उद्यमिता के उद्देश्यों को लेकर सजग और सतर्क दिखाई देतीं हैं बल्कि वे कथा के अनुसार शिल्पों और‌ भाषाई प्रबंधन में भी एक जिम्मेवार लेखक की भूमिका का निर्वाह करती प्रतीत होतीं हैं ।यही कारण है कि पाठक सरलता से उनकी रचनात्मक तरंगों के साथ प्रवाहित होते चले जातें हैं।विविध विषयों के विभिन्न लघुकथाओं के संप्रेषण और संकलन में ,मानव मूल्यों की पुनर्स्थापना के क्रम में ,लेखिका ,रमा द्विवेदी जी लघुकथा लेखन की चुनौतियों का न सिर्फ बड़ी सावधानी से सामना करती हुईं दिखती हैं बल्कि इनके माध्यम से  सामाजिक चेतना मे विलुप्त होते जीवन मूल्यों को पुनः स्थापित करने हेतु भी प्रयासरत दिखती हैं  । निश्चित रूप से,” मैं द्रौपदी नहीं ”  मानव मूल्यों को पुनर्स्थापित करने की एक सफल कोशिश है।

उनकी सफल और सशक्त रचनाधर्मिता के लिए हार्दिक शुभकामनाएं

               –

डॉ.राशि सिन्हा

नवादा, बिहार

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अपने जीवन में व्यक्ति जब-जब भी स्वयं से संवाद करता है तो उसका अन्तस् उजास के पथ की ओर संकेत करता है जहाँ वह आस की किरण का पुँज सामने पाता है। यही आस उसके आत्मविश्वास में जुम्बिश पैदा करती है और वह जीवन की सच्चाइयों के साथ दृढ़ता पूर्वक साक्षात्कार करता हुआ सकारात्मक पहल करता है।

इन्हीं सन्दर्भों को अपनी सृजन यात्रा में उजागर करती रचनाकार डॉ. रमा द्विवेदी का लघुकथा संग्रह ‘ मैं द्रौपदी नहीं हूँ ‘ ऐसा संग्रह है जिसमें सामाजिक ताने-बाने की गहराई से पड़ताल की गई है।

एक सौ ग्यारह लघुकथाओं का यह संग्रह इस बात को उभारता है कि बदलते समाज की बदलती प्रवृत्तियाँ मनुष्यता के भावों को लील कर सामाजिक संरचना के विविध पक्षों को गहराई से प्रभावित कर रही हैं। वहीं समाज की महत्वपूर्ण इकाई परिवार और उसके सदस्य इन प्रवृत्तियों के पाश में जकड़ते चले जा रहे हैं। 

प्रथम लघुकथा ‘मैं द्रौपदी नहीं हूँ’ इस संग्रह की शीर्षित कथा है जो सामाजिक-पारिवारिक विडम्बना और विद्रूपता को सामने लाकर अपने समय से जूझती नारी के सम्मान और अस्तित्व पर पसरे असहिष्णुता के अन्धकार को दर्शाती है। वहीं ‘विडम्बना’ कथा यथानाम एक सहज प्रश्न की विस्तृत व्याख्या है कि – ‘ खाली घड़ा लेकर हम औरतें क्या चाँद की ओर ताक-ताक कर अपनी और घरवालों की प्यास बुझायेंगे?’ 

संग्रह की अधिकांश कथाएँ पारिवारिक परिवेश से सन्दर्भित हैं जिनमें विवाह और विवाह के बाद के आन्तरिक संघर्षों का सहज चित्रण किया गया है। वहीं कुछ कथाओं में कोरोनाकाल की त्रासदी और उससे उपजी मानसिकता का विवेचन उभर कर आया है। लघुकथाकार ने अपने समय की नब्ज़ देख कर सोशियल मीडिया से सन्दर्भित कथाओं को बुना है जिसमें से ‘टैगियासुर’ एक है।  

सामाजिक -पारिवारिक सन्दर्भों के साथ ही इस संग्रह में राजनैतिक परिवेश का भी बख़ूबी चित्रण हुआ है। यही नहीं साहत्यिक परिवेश को भी यह संग्रह शिद्दत से प्रस्तुत करता है। ठगुआ कवि, साहित्यिक विदेश यात्रा मुफ़्त , मेरा नाम नहीं, क्यों, हर धान रुपये में बाइस पसेरी, सम्पादक, मूल लेखक कैसे, रिमार्क, कविता चोर, मानद उपाधि तथा धंधा ऐसी ही लघुकथाएँ हैं जिनमें लेखक और लेखन की प्रवृत्तियों को बारीकी से सन्दर्भानुरूप विवेचित तो किया ही है साथ ही इन लघुकथाओं की एक विशेषता यह है कि ये सहज होते हुए भी सामाजिक यथार्थ को सरलता से रेखांकित करती चली जाती हैं । साथ ही सामाजिक सरोकारों को सामने लाकर नारी चिंतन के स्वर को मुखरित करती हैं । 

महासागर में उछालें मारती लहरें तथा नवनीत से उभरते झाग और इनके भीतर की गहराइयों को अनुमानित करने की मुद्रा में नारी का अंकन संग्रह के मुख पृष्ठ पर भावपूर्ण रूप से उभरा है। यह वह नारी है जिसके मन के भीतर के वैचारिक सागर की लहरें भी उछलते हुए चेतना के स्तर से चिंतन के विविध आयामों तक उसे यात्री बनाये रखती हैं । ऐसा यात्री जो जीवन के हर पड़ाव पर संघर्ष और विमर्श के साथ आगे बढ़ता रहता है। यह है तो संग्रह का मुख पृष्ठ तथापि भीतर के पृष्ठों में उभरे भाव और विचारों का कोलाज भी है। 

अन्ततः यही कि संवेदनाओं के पथ पर उभरे स्वरों की अनुभूति से शब्दाकार हुई ये कथाएँ अपने समय को सूक्ष्म रूप से विवेचित करती हैं।

विजय जोशी

174 – बी, आरकेपुरम,सेक्टर बी,

कोटा-324010(राजस्थान)

मोबाईल 9460237653

Posted by: डॉ. रमा द्विवेदी | फ़रवरी 28, 2024

नारी मन का दृढ़ प्रत्युत्तर : मैं द्रौपदी नहीं हूँ

-ममता महक 

सत्युग से लेकर कलियुग तक स्त्री स्वयं को सिद्ध करने के लिए अनगिनत परीक्षाएँ देती आई है। यह कभी सीता बन अग्नि में प्रविष्ट हुई है तो कभी अहिल्या बन प्रस्तर में परिवर्तित हुई है। कभी सावित्री बन कठोर तप किया है तो कभी द्रोपदी बन दाँव पर भी लगी है। स्त्री को उसका सम्मान कदापि सहज में नहीं मिला। जो समाज नारी को पूजने का अधिकारी मानता है वही समाज उसे धरती में समाने के लिए विवश करता है। उसे सती न होने पर कुलक्षिणी की उपाधि देता है। कब तक ये  समाज स्त्री को सती, सावित्री और सीता बनाता रहेगा। आखिर किसी स्त्री को तो कहने का साहस करना ही होगा कि हम केवल वही नहीं है जो छवि आपने बनाई है बल्कि हम भी मनुष्य हैं। हम भी कुछ करना चाहते हैं।  हर पुरुष राम नहीं है तो हर स्त्री भी सीता नहीं है। आज कौन युधिष्ठिर है, कौन अर्जुन है, कौन भीम है, हाँ दुर्योधन सरीखी वृत्तियां कई पुरुषों में हैं, तो हो किन्तु अब एक भी स्त्री द्रौपदी नहीं है। अब नारी अशिक्षित, अबला और अज्ञानी नहीं है। वह प्रत्येक तथ्य और घटना को समझती है, वह साहसी और प्रगतिवादी है। वह दृढ़ निश्चयी है। वह इतनी सामर्थ्यवान है कि अपने अस्तित्व को बचाए भी रखती है और उसका स्थान भी बनाए रखती है। डॉ रमा द्विवेदी जी जिन्होंने कई विधाओं में रचनाकर्म किया है उनका नव लघुकथा संग्रह “मैं द्रौपदी नहीं हूँ” नारी मन के दृढ़ संकल्पित प्रत्युत्तरों का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। पूरी एक सौ ग्यारह लघुकथाएँ रचना, रमा जी जैसी रचना प्रेमी और निरन्तर लेखन कर रहीं

साहित्यकार के ही बस का कार्य है। विविध संदर्भों और विविध आयामों पर रची ये विविध वर्णी लघु कथाएँ पढ़ते हुए मैं कभी चौंकी तो कभी प्रसन्न हुई कभी रोई तो कभी उदास हुई। एक नारी मन को दूसरी नारी मन ने सहज में ही अपनी घनिष्ठ सखी स्वीकार कर लिया। उनकी लघुकथाएँ पढ़ स्वयं को उनका पात्र सा मानने लगी। एक नारी, एक माँ, एक पत्नी, एक बहु, एक बेटी, एक बहन, एक कामकाजी महिला, एक  साहित्यकार और इन सभी के साथ समय-समय पर रमा जी ने जीवन के कई रूपों को प्रतिक्षण जिया होगा। हर क्षण को बारीकी से महसूस किया होगा अन्यथा इतनी कहानियाँ लिखना किसके बस की बात है। अनुभव और प्रतिभा दोनों का अनूठा समावेश लिए रमा जी की कहानियाँ वास्तविक परिवेश और घटनाओं को उत्कृष्ट कथानक में बुनती हैं। यूं तो लघुकथा में पात्रों के चित्रण की संभावना नहीं होती किन्तु रमा जी ने कथानक की रचना के साथ ही पात्रों का चित्रण प्रस्तुत किया ही

शीर्षक कथा “मैं द्रौपदी नही हूँ” में प्रज्ञा की जागरू‌कता, शिक्षा और संस्कारों ने उसके चरित्र का स्वयं चित्रण कर दिया। स्त्री यूं भी किसी पहचान की मोहताज नहीं उसका कर्म, व्यवहार और स्वाभिमान उसकी पहचान की कसौटी हैं। स्त्री विमर्श के इर्द-गिर्द घूमती कहानियाँ ‘खरीदी हुई औरत’, ‘दहशत’, ‘नियति का खेल’, ‘दरकते रिश्ते की पीड़ा’, ‘हल में जोतना है क्या’ बड़ी ही प्रभावी हैं। ये कहीं स्त्री मन की पीड़ा को दर्शाती हैं तो कहीं स्त्री की विवशता, कहीं दुर्बलता और कहीं समाज द्वारा लादी गई पराधीनता।

एक साहित्यकार होने के नाते रमा जी ने साहित्य जगत की वास्तविकताओं को देखा है, दुविधाओं को झेला है और आडंबर को जाना है। ऐसी ही सच्चाइयों पर रची लघुकथाएँ जहाँ मनोरंजन करती हैं तो सोचने पर भी मजबूर करती हैं कि जब साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता रहा है तो फिर ऐसे साहित्यकार इस दर्पण में क्यों दाग लगा रहे हैं, अपने सस्ते साहित्य और खरीदे हुए सम्मान और पुरस्कारों से। एक रचना की शुरुआत से लेकर प्रकाशन तक की प्रक्रिया में आने वाले अवरुद्धों पर भी  रमा जी ने कथाएँ गढ़ी हैं।

सामाजिक प्राणी होने के नाते साहित्यकार से अपेक्षा की जाती है कि वह सामाजिक अव्यवस्थाओं, बुराइयों और कुरीतियों के विरोध की मशाल जलाए। रमा जी ने दहेज, बेमेल विवाह, नाता प्रथा, लिंग असमानता, शोषण और संतान हीनता पर भी लघुकथाएँ इस संकलन में सम्मिलित की हैं। विज्ञान की देन तकनीकी और इंटरनेट से जन्मीं आभासी दुनिया और सोशल मीडिया से जुड़ी कहानियाँ आज की सच्चाइयों का वर्णन करती है। ‘चुंबक सा आकर्षण’ कहानी उन लोगों की दशा का विवरण है, जो मोबाइल को अपना हमराही और अपने फॉलोअर्स को अपना परिवार मान बैठे हैं। मानसिक दुर्बलता, निम्न सोच और दकियानूसी विचारों से सम्बद्ध लघुकथाएँ भी रमा जी ने बड़ी ही चतुराई से संकलन में शामिल की हैं। कोरोना, काल की घटनाएँ और बाध्यताएँ भी रमा जी को कथानक दे गए। संकलन की सभी कहानियाँ पठनीय हैं किन्तु लघुकथा विधा जिन सीमाओं से बँधी है वे किन्हीं-किन्हीं कहानियों में तोड़ी जा सकती तो लंबी कहानी कथानक के साथ पूरा न्याय कर पाती। कुछ  कहानियाँ कहानी ना होकर रिपोर्ताज और घटना का विवरण सी जान पड़ती हैं। कहीं-कहीं संस्मरण विधा की झलक दिखी है तो कहीं संवाद में तीखेपन का अभाव। कुछ लघुकथाएँ मस्तिष्क के गहरे में जा बैठती है तो कुछ पवन वेग सी छूकर निकल जाती हैं। पर ये भी तो कथाओं की विशेषता है और कथाकार की भी कि वह हर रंग की रचनाएँ ला इकट्ठा करता है। रमा जी सहज संवादों, सरल भाषा, साधारण परिवेश और सामाजिक घटनाओं पर इतना वृहद संकलन लेकर आईं यह स्वयं में अनुपम  है। उनकी कर्मठता और रचनाशीलता को साधुवाद।

कृति – मैं द्रौपदी नहीं हूँ

विधा – लघुकथा

लेखक – डॉ रमा द्विवेदी

पृष्ठ – 133

मूल्य – 250/-

समीक्षक – ममता महक

कोटा, राजस्थान

           समीक्षक – ऋषभदेव शर्मा

डॉ. रमा द्विवेदी हैदराबाद के हिंदी जगत में एक सुमधुर स्वर की धनी कवयित्री के रूप में सुचर्चित और
लोकप्रिय हैं। उनके सुरम्य गीत हर पीढ़ी के काव्यरसिकों को पसंद आते हैं। लेकिन उनका रचना संसार
केवल कविता तक सीमित नहीं है। वे पुस्तक समीक्षा और कथा-कहानी भी उसी तरह डूब कर लिखती हैं
जिस तरह गीत, दोहे, मुक्तक और हाइकु  । इसका जीवंत प्रमाण है उनका गत दिनों प्रकाशित लघुकथा
संकलन “मैं द्रौपदी नहीं हूँ ” । संकलन की शीर्ष कथा ‘मैं द्रौपदी नहीं हूँ’ में भारतीय समाज में प्रचलित घरेलू हिंसा की विकृति और स्त्री की विवशता को दर्शाया गया है। घर की शांति और एकजुटता के नाम पर बहुओं के उत्पीड़न की यह कहानी आज भी बहुत से घरों में दोहराई जाती है। अकेली पड़ने पर बहुत बार बहुएँ इस उत्पीड़न के समक्ष या तो झुक जाती हैं या टूट जाती हैं। लेकिन रमा द्विवेदी की कथानायिका अपने पति के दब्बूपन और देवर की उद्दंडता दोनों का प्रतिकार करती है तथा खुद को द्वापर की द्रौपदी जैसी भाइयों में बँट जाने वाली वस्तु नहीं बनने देती। कथा का अंत खुला हुआ है क्योंकि यह कल्पना पाठक पर छोड़ दी गई है कि आत्मसम्मान की रक्षा पर उतारू बहू के साथ दकियानूसी परिवार और पुरुषवादी समाज आगे क्या
सुलूक करेगा! इस लिहाज से यह लघुकथा किसी दीर्घकथा की प्रस्तावना भी कही जा सकती है।
             इतिवृत्तात्मकता और उपदेशात्मकता को लघुकथा लेखन की चुनौती कहा जा सकता है। यह चुनौती
कथाकार रमा द्विवेदी के सामने भी बार- बार उपस्थित होती है। इसका मुकाबला करने के लिए वे संक्षेप
और संवाद का रास्ता अपनाती हैं। इसमें उन्हें कितनी सफलता मिल पाई है, इस बारे में मतभेद हो सकता
है। लेकिन ‘चैलेंज’ इसका अच्छा उदाहरण है जिसमें लेखिका ने सोशल मीडिया के खतरों के बारे में
पाठकों को आगाह किया है। ‘चुंबक-सा आकर्षण’ में भी फेसबुक के आभासी मोह जाल में फंसने से
बचने की सीख देने के लिए ऐसे ही संवाद की अवतारणा की गई है। अन्यत्र ‘धारणा’ में यात्रियों के संवाद
के माध्यम से लेखिका ने अपनी यह धारणा स्थापित की है कि उत्तर प्रदेश भ्रष्टाचार और अव्यवस्था का
गढ़ है और दक्षिण भारत, उसमें भी हैदराबाद, में सुकून ही सुकून है क्योंकि यहाँ राजनीतिक व्यवस्था उत्तर
से बेहतर है। (यह बात अलग है कि इसी हैदराबाद में विधानसभा चुनाव में सत्ता परिवर्तन राजनीतिक
भ्रष्टाचार के मुद्दे पर होते देखा गया है!)  ऐसे सरलीकरणों से बचा जाना चाहिए, वरना उन बयानों की तरफ
शायद ही उँगली उठाई जा सके जिनमें हिंदीभाषियों को गोमूत्र पीने और संडास साफ करने वाले कहकर
गरियाया जाता है। वैसे भी लघुकथा एक व्यंजना प्रधान विधा है। इस दृष्टि से ‘टैगियासुर’ अवश्य ही रोचक
और व्यंजक है।

इसमें दोराय नहीं कि लघुकथाकार का एक बड़ा प्रयोजन वैयक्तिक और सामाजिक जीवन की
विसंगतियों और पाखंड पर चोट करना भी है। लेकिन उसे ध्यान रखना पड़ता है कि लघुकथा भी कथारस
की माँग करती है। इसके बावजूद सामाजिक चेतना संपन्न लेखक बहुत बार अपने सामाजिक प्रयोजन की
सिद्धि के लिए कथात्मकता की बलि चढ़ाने में भी संकोच नहीं करते। लेखिका रमा द्विवेदी भी रचनाकार
के संदेश को कला से ऊपर मानती हैं। ‘प्री वेडिंग शूट’ में इसीलिए वे कथाकार पर समाज सुधारक को
हावी हो जाने देती हैं। ‘यह कैसी शादी’ में यद्यपि लेखिका ने सोलोगेमी को अमान्य करार दिया है, लेकिन
बड़े मार्के की यह टिप्पणी भी की है कि प्यार में धोखा खाने से और तलाक़ लेने से तो अच्छा है कि खुद से
ही विवाह करो और खुद से ही प्यार करो!
लेखिका की यह सामाजिक जागरूकता प्रायः सभी लघुकथाओं में झलकती है। कहीं प्रत्यक्ष, तो कहीं
प्रच्छन्न। यह हमारे समय की कुरूप सच्चाई है कि अर्थ-पिशाचों से भरे इस स्वार्थी समाज में अनुपयोगी
और बोझ बन चुके बूढ़ों के लिए अपने ही बच्चों के घरों में जगह नहीं बची है – दिलों में भी नहीं। खासकर
अकेली विधवा माताओं की स्थिति तो बेहद कारुणिक है। ‘माई की ममता’ में ऐसी ही एक माँ की त्रासद
गाथा वर्णित है। लेकिन लेखिका माँ के लिए निष्ठुर बेटों को दंडित होते नहीं देखना चाहती और ज़रा सा
दबाव पड़ते ही बेटों का हृदय परिवर्तन करा देती हैं। अब यह आगे की बात है कि इन कृतघ्न बेटों का यह
बदला चरित्र कितनी देर टिकता है। कहीं ऐसा न हो कि थाने से निकलते ही वे फिर से कपूत साबित हों!
सोचने को मजबूर करती यह लघुकथा काफी संभावना पूर्ण कही जा सकती है।
            कुल मिलाकर, ‘मैं द्रौपदी नहीं हूँ’ सामाजिक चेतना संपन्न तथा सोद्देश्य लघुकथाओं का सुरुचिपूर्ण
संकलन है। ये लघुकथाएँ अपनी सहज भाषा और प्रवाहपूर्ण कथन शैली के सहारे पाठक को देर तक
बाँधे रखने में सक्षम हैं।

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