Posted by: डॉ. रमा द्विवेदी | अक्टूबर 27, 2006

रिश्ते भी मुरझाते हैं

         पल-पल रिश्ते भी मुरझाते हैं,
         उम्र बढते-बढते वे घटते जाते हैं।
          मानव कुछ और की चाह बढाते हैं,
         इसलिए वे कहीं और भटक जातेहैं॥

           रिश्ते का जो पक्ष कमजोर है,
         समय उसको ही देता झकझोर है।
          अतीत की गवाही नहीं चलती वहां,
         मानव सुख की पूंजी का जमाखोर है॥

          मानव एक रिश्ते को तोड,दूसरे को अपनाता है,
         अब तक के सारे कसमें-वादे भूल जाता है।
          मानव से अधिक स्वार्थी न कोई होगा जहां में,
         अपनी तनिक खुशी के लिए वो दूसरों के घर जलाता है॥

         डा.रमा द्विवेदी 

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प्रतिक्रियाएँ

  1. उलझे थे हम भी कभी इन
    रिस्तों के अथाह सागर से

    नासमझ था मैं समझा नहीं
    समझाया बहूत जो इसारों से

    प्रित निभाने चलदी वो फिर
    छुड़ाके हाथ संग किसी और के

    बुरा लगा उसे उलझना मेरा
    पुकारते रहे हम मंझधार से

  2. रिश्तों की परिभाषा कोई साहित्यकार दे सका नहीं
    यह अनुभूति का बोध, स्वयं ही उगता है बढ़ जाता है
    यह मन से मन के बीच भावनाओं के सेतु बनाता है
    फिर एकाकी पगडंडी पर मधुरिम आलोक जगाता है

  3. जोशी जी,

    बहुत बहुत शुक्रिया कि आपने दोनों कविताओं पर अपनी राय प्रेषित की है।आपकी कविता पढी अच्छी लगी,दर्द छ्लक रहा है।

    डा. रमा द्विवेदी

  4. राकेश जी,

    मन से मन की अनुभूति ,
    काश! मेल खा पाती।
    साथ-साथ रहने पर भी,
    यूं रिश्तों को न तडपाती।

    डा. रमा द्विवेदी

  5. पल-पल रिश्ते भी मुरझाते हैं,
    उम्र बढते-बढते वे घटते जाते हैं।
    मानव कुछ और की चाह बढाते हैं,
    इसलिए वे कहीं और भटक जातेहैं॥

    सुंदरतम रचना ।

  6. Bhavana ke shrot sookhe,man hua banjar pathar,
    zindagi bazar jaise, gam nagad, khushiyan udhar
    apani gathri bandh ker samvedanayen chal padi,
    unko jo apanaye vo ho jata hai pagal karar
    khoon ke reshte nibhen jab khoon bhi paryapt ho,
    alpataa hai rakt ki aur roze aata hai bukhar.
    Dr Rama ji ki kavita”Rishte bhi murjhate hain” padh ker mujhe apni kavita ki ye lines yad aa gaye.Maine pahali bar unko padha hai,kavitayen yatharth ko ujagar karti hain,.badhai & shubh kamnayen.
    nirmal


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