Posted by: डॉ. रमा द्विवेदी | नवम्बर 7, 2006

ऊर्जस्विता (कहानी)

 शूल केवल फूलों में ही नहीं उगते बल्कि ये हर समाज में शब्दों या अपहब्दों के  रूप में अपने डैने फैलाए चाहे-अनचाहे अपनी परिधि में जकड    कर अपने डंक चुभाते हैं  जिसकी असहनीय पीडा से व्यक्ति छटपटा कर रह जाता है अगर वह मरता नहीं तो  मरणतुल्य जीवन जीने के लिए अभिशप्त अवश्य हो जाता है। उसकी आत्मा में एक नासूर  अवश्य बन जाता है जो हर वक्त रिसता रहता है। समाज में उपेक्षित होकर जीने एवं आत्मग्लानि में मनुष्य का आत्मविश्वास एवं आत्मसम्मान सब कुछ चुक जाता है।
        उत्तर प्रदेश के हमीरपुर जनपद के एक बहुत ही छोटे से गांव”उमरी” में स्वयंप्रभा का जन्म हुआ था। इस गांव की आबादी लगभग पांच हजार होगी। स्वयंप्रभा के जीवन की नींव इसी गांव में रखी गई। एक भाई और एक बहिन में वह सबसे छोटी थी इसलिए माता-पिता की अधिक लाडली थी। उसके माता -पिता ने बडे ही प्यार-दुलार से उसका पालन-पोषण किया था।गांव के नैसर्गिक सौन्दर्य में उसके बचपन कोजीवन का नया अर्थ मिला था।  पीपल की छांव में झूले झूलना,बूढे बरगद के नीचे बने देवी के मंदिर के अहाते में लुका-छिपी खेलना , अमरूद के बगीचे से अमरूद चुरा कर तोडना-खाना, पत्थर मारकर कच्चे आम तोडना, बेरी-झरबेरी के बेर चुन कर खाना ,तालाब में नहाना-तैरना, लहलहाते खेत और पास में एक पोखर जिसमें सिंघाडे की बेल पडी रहती उसमें से वह कभी भी कच्चे सिंघाडे तोडकर खाती। बहुत ही मदमस्त जीवन था ।किसी अन्य सुख की चाह कभी नहीं हुई।
          गांव में बालिकाओं के लिए एक छोटी सी पाठशाला  थी। एक बाईजी पढाती थी जो पढाती कम मारती-डांटती ज्यादा थी। इनकी भी बडी अजीब कहानी थी। सफेद साडी में लिपटी कंचन काया और युवावस्था का तेज मुख पर दमकता था।वे देखने में त्याग की सजीव मूर्ति लगती थी।वे बाल विधवा थी।जन्म से ही एक-नेत्रा थीं। पिता-भाई के सुख से वंचित थीं।घर में केवल विधवा मां थी। जीवन की गाडी चलाने के लिए ही नौकरी करती थीं। हर रोज पांच मील पैदल चलकर आती जाती थी। पढी लिखी ज्यादा नहीं थीं लेकिन पता नहीं नौकरी कैसे मिल गई थी।
          जब स्वयंप्रभा पांच बरस की हुई तो शुभ दिन देखकर पाटी पूजन कर उसका नाम इसी पाठशाला में लिखवा दिया गया। स्वयंप्रभा बहुत मेधावी किन्तु चंचल स्वाभाव की थी। पढाई तो वह पलक झपकते कर लेती और कक्षा में वह सबसे अव्वल रहती। इस तरह बाई जी के क्रोध का भाजन उसे कभी नहीं होना पडा लेकिन दूसरों को पिटता देखकर और हमेशा बाईजी के हाथ में छडी देख वह डरती अवश्य थी। उसे मार खाना बिल्कुल पसन्द नहीं था। उसके साथ उसकी सहेली मालिनी  भी पढती थी। वह पढने में कमजोर थी पर इसकी उससे खूब बनती थी। एक दिन वह मालिनी के साथ खेलने उसके घर चली गई लेकिन मालिनी यह कहकर  घर के अन्दर चली गई कि वह उसका इन्तजार करे वह अभी आती है। जब वह काफी देर तक नहीं आई तो उसने दरवाजे की आड से उसके घर में झांक कर देखा। कई औरतें बैठी बातें कर रहीं थीं। तभी एक औरत ने उसकी  तरफ उंगली  दिखा कर दूसरी से पूछा यह किसकी लडकी है?
     दूसरी ने कहा-तुम नहीं जानती “यह तो उसी कुलटा पंडिताइन की बेटी है जो दूसरा खसम कर गयी है।”
      “दूसरे ने आश्चर्य  से हां में हां मिलाई”।
    यह बात सुनकर स्वयंप्रभा के तन-बदन में आग लग गई किन्तु वह कुछ बोल न सकी और चुपचाप  अपमान का विष पीकर वहां से वापस घर आ गई। कई दिन तक वह बहुत उदास रही पर उसने किसी से कुछ नहीं कहा।
यूं तो सात बरस की  आयु कोई  अधिक तो नहीं होती लेकिन स्वयंप्रभा को यह बात अवश्य समझ में आ गई कि यह बात उसकी मां के लिए सम्मानजनक नही थी। उसके ह्रिदय में यह अपमानित क्षण बहुत गहरे पैठ गया। उसके मन में समाज के ऐसे लोगों के प्रति क्षोभ और घ्रिणा उत्पन्न हो गई और उसने मन में कोसते हुए कहा कि समाज के ऐसे लोग ही तो शब्दों के शूल चुभा-चुभा कर जिस्म और आत्मा को लहूलुहान करते रहते हैं। वह ऐसे शूल अपने को कभी चुभने नहीं देगी।
          वह बहुत संवेदनशील थी और उसकी उम्र के हिसाब से उसके विचार परिपक्व एवं प्रगतिशील थे,इसलिए  मां के लिए ऐसे अपशब्द सुनकर भी मां के प्रति उसकी श्रद्धा व सम्मान कम न होकर और भी बढ गया। ” उसकी मां बाल-विधवा थी ।अगर उसने शादी करके अपना जीवन निर्वाह  करना चाहा  तो इसमें गलत क्या है? फिर उसकी सज़ा उसके बच्चों को क्यों मिले?
      ” जब उसकी मां का कोइ सहारा न था तब समाज के तथाकथित नामी कई नर-भेडिओं ने उसका जीना दुश्वार कर दिया था। हमेशा घात लगाए देखते रहते थे। तब ये समाज के लोग कहां थे? सत्तरह बरस की उम्र मे ही तो वे विधवा हो गई थी ऐसे में पूरी ज़िन्दगी बिना सहारे के गुजारना आसान नहीं था। ऐसी स्थिति में अगर उसकी मां ने एक सुद्र्ढ सहारा ढूढ कर शादी कर ली तो इसमें गुनाह कैसे हो गया”?
      वह मां के बारे में यह सब बातें इसलिए  जानती थी क्योंकि कई बार मां को रो-रोकर अपनी सहेली को बताते हुए सुना था। जब भी वह मां को रोते हुए देखती वह भी रोने लगती। उसके कोमल ह्रिदय में मां के लिए और भी प्यार उमडता और वह यही सोचती कि वह ऐसा  कुछ न कुछ अवश्य करेगी जिससे उसकी मां को खुशी मिले और वह समाज में गर्व से सिर उठा कर जी सकें। बस यही वो द्रिढ संकल्प था जिसे पूरा करने के लिए वह कटिबद्ध हो गई। समाज को भी ज़वाब देने का इससे बढिया और कोई उपाय उसके पास नहीं था। उसने सोचा उसे और अधिक पढाई करनी पडेगी तभी वह अपनी मंज़िल तक पहुंच पाएगी। जब उसने पांचवीं कक्षा  प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण कर ली तब उसके सामने समस्या यह थी  कि गांव में तो बस एक प्राइमरी स्कूल ही था आगे की पढाई वह कैसे कर पाएगी? क्या उसके पिता उसे बाहर पढने के लिए भेज पायेंगे? बहुत ऊहापोह में कई दिन तक रही,फिर एक दिन हिम्मत करके वह अपने पिताजी से बोली मैं भी भैया की तरह  आगे पढना चाहती हूं। पहले तो पिता जी नहीं माने लेकिन बेटी की मेहनत और लगन देख कर हां कर दी। उसे कस्बे के स्कूल में दाखिल करवा दिया। इस स्कूल में रहने की व्यवस्था भी थी। वह अपनी मनचाही मुराद पूरी करने के लिए जीजान से जुट गई।
       स्वयंप्रभा ने फिर पीछे मुडकर नहीं देखा। पढनें के सिवा उसके जीवन का और कोई दूसरा लक्ष्य नहीं था। समय बीतता गया और वह डिग्रियां हासिल करती चली गई। तमाम प्रतियोगी परिक्षाओं से गुजरती हुई आखिर एक दिन उसे उनमें सफलता मिल ही गई और उसकी नियुक्ति उप-जिलाधीश के पद पर पर हुई। माता-पिता गर्व से फूले न  समाते। उसके भाई ने ज्यादा पढाई नहीं की बस एम.ए. कर कालेज में कामर्स का व्याख्याता बन गए।जीवन के गुजारे भर के लिए कमा लेते थे। बडी बहिन को पढने में रुचि नहीं थी इसलिए पिताजी ने उसकी शादी जल्दी ही कर दी थी।
         स्वयंप्रभा की कर्मठता एवं ईमानदारी के कारण उसकी पदोन्नति शीघ्र होती गई और एक दिन वह अपने ही जिले की कलक्टर बन गई। जब एक दिन वह सरकारी जीप में बैठ कर अपने गांव गई तो उसे देखने के लिए भीड उमड पडी । सब लोग झुक-झुक कर उसके पांव छूते और कहते”धन्य हो बिटिया तुमने हमारा सिर गर्व से ऊंचा कर दिया  है। अब हम शान से कह सकते हैं कि तुम इस गांव की बिटिया हो”।
           स्वयंप्रभा ने समाज की उपेक्षा ही को तो अपनी आत्मशक्ति बनाई थी और उसी आत्मविश्वास के बल पर ही तो उसने सब कुछ पाया था। मैं सोचती हूं  “काश! सभी लडकियों की सोच उस जैसी होती और तब समाज की उपेक्षा को भी सकारात्मक कार्य करके  वे अपनी प्रतिभा को सिद्ध कर पातीं। “जीवन में चाहे कितना ही घना अंधेरा क्यों न हो  उसकी सकारात्मक सोच,द्र्ढ संकल्प और सच्ची लगन  हर बाधाओं से लडने की  असीमित ऊर्जा  देती है। रास्ते कंटकोंपूर्ण  हो सकते हैं लेकिन अगर पांव  लहूलुहान हो जाने पर भी चलने की क्षमता रखते हों तो उसको मंज़िल तक पहुंचने से कोई नहीं रोक सकता”। संसार की हर महान बनने वाली महिलाओं के रास्ते भी तो आसान नहीं रहें होंगे लेकिन उन्होंने अपनी सूझ-बूझ एवं दम-खम से ही वो प्राप्त किया होगा जो उन्हें चाहिए था  और रास्ते तो कई हैं बस उन पर चलने की देर है।” काश ! सभी स्वयंप्रभा जैसी ऊर्जस्विता बन सकें”।
       चलो अब मैं चलती हूं मुझे उन महिलाओं से भी मिलना है जिन्होंने मुझे इतना काबिल बनाया है। मालिनी के घर जाकर “कैसी हैं काकी जी? क्या आपने मुझे पहचाना ? मैं पंडिताइन की बिटिया हूं”।
 “यह सुनकर वे पैरों पर गिर पडीं और बोली बिटिया तुम्हें कौन नहीं जानता? हमें माफ़ कर दो”।
   मेरी आंखों में प्रेम के आंसू छलछ्ला आए। मैंने उन्हें उठा कर  गले से लगा लिया ।मन का मैल तो कब का धुल चुका था।**********

 डा. रमा द्विवेदी
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