कोमल बचपन पत्थर से गम सहते हैं।
रूखे अधर, आंख में पानी,
बचपन जाने से पहले ही बीती जाय जवानी,
नहीं पसीजे कोई इनके दुख से
चीख-चीख यह कहते हैं …….भोजन, कपडा नहीं बराबर,
इनके लिए दिन-रात परिश्रम,
खा पीकर जब करते सब आराम,
काम तब भी ये करते हैं…….कैसी आज़ादी?जहां सुकुमारता बंधक है,
बडे-बडे कानून हैं पर इनका कोई न रक्षक है?
नारे लगाते बडे-बडे फिर भी,
इनका दुख न कोई हरते हैं…..उनके अन्तस के चीत्कार को,
कौन सुनेगा उनकी पुकार को?
पग-पग पर ठोकर खाते,
फिर भी प्रतिकार न करते हैं…..जीने का हक इन्हें भी दे दो,
अधिकार,प्यार इन्हें भी दे दो,
इनका जीवन बदलेंगे हम,
संकल्प आज ये करते हैं……डा. रमा द्विवेदी
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Posted by: डॉ. रमा द्विवेदी | नवम्बर 25, 2006
पत्थर से गम सहते हैं
संवेदना की अनुभूतिय में प्रकाशित किया गया
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बाल शोषण का यथार्थ चित्रण करती कविता दिल को छू गई.
By: समीर लाल on नवम्बर 25, 2006
at 7:28 अपराह्न