Posted by: डॉ. रमा द्विवेदी | दिसम्बर 3, 2006

आत्मीयता का मूल्य

      मेरे घर के चारो ओर हरियाली ही हरियाली है,
       रंग-बिरंगे फूलों की सजी-धजी क्यारी है।
       लोगों से कई गुना अधिक यहां फूल बेशुमार हैं,
       पर जहां देखो वहां गाडियों की कतार है॥

       घर में है बगीचा या बगीचे में है घर,
       होता है मुझे भ्रम यह अक्सर।
       पर मेरे मन में है पतझड,
       यहां आदमी कम ही होता है द्रिष्टिगोचर॥

       कितना दुख है अकेलेपन का यहां?
       कितना इन्त्जार है किसी के होने का यहां?
       मेरा मन तडपता है किसी से मिलने को यहां,
       लडने-झगडने व रोने-हंसने को यहां॥

       फूलों की ओर एकटक देखती हूं मैं,
       कितने खुश हैं ये अकेले रह कर यहां?
       मेरे मन में क्यों इतना गहरा अंधकार है?
       क्यों मुझे किसी से मिलने का इन्तजार है?

       अकेलापन मानव को दीमक की तरह खा जाता है,
       आत्मीयता में मानव अद्रश्य शक्ति पाता है।
       काश! मुझे भी यहां अपनेपन का अहसास होता,
       मेरे मन का सुकून यहां यूं तो न खोता॥

       डा. रमा द्विवेदी

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       (अमेरिका प्रवास के समय लिखी गई कविता)


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