१- प्यार भी करते हो तुम तलवार की धार पर,
जान भी ले लेते हो प्यार के इन्कार पर।
बर्बरता का यह कौन सा सोपान है ?
खून की बेदी रचाते हो हमें तुम मार कर॥२- भावनाएं घायल हुईं जब,
फिर जिस्म में था क्या बचा?
जिस्म के टुकडे किये फिर भी,
हैवानियत का यह कैसा नशा?(यह मुक्तक उस समय लिखे थे जब मद्रास मे क्लास रूम मे दिनदहाडे एक लडकी की हत्या उसके तथाकथित प्रेमी ने कर दी थी)
३- सदियों से नारी विलख रही,
चाहे पहना हो कितना ही गहना?
आत्मा जब उसकी बनी है बंदी,
तब गहने पहन के क्या करना?४- युग बदला ,सब बदल गया,
गहनों की अब चाह रही ना।
दिल का सुकून जरूरी है,
अन्तस की हंसी है अब मेरा गहना॥डा. रमा द्विवेदी
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Posted by: डॉ. रमा द्विवेदी | दिसम्बर 3, 2006
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‘प्यार भी करते हो तुम तलवार की धार पर .. ‘
सही कहा है ।
By: सीमा कुमार on दिसम्बर 5, 2006
at 5:44 पूर्वाह्न
बहुत बहुत शुक्रिय सीमा कुमार जी कि आपको रचना पसन्द आयी
By: ramadwivedi on दिसम्बर 10, 2006
at 2:42 अपराह्न