प्रेयसी का आज बादल उम़ड रहा है।
उसके ही आस-पास पौरुष सिमट रहा है॥संकीर्णता विचारों की इस क़दर ब़ढने लगी है।
जाने-पहचाने चेहरों में ही वो सिमटने लगी है॥मोह का कोहरा कुछ इस क़दर छाने लगा है।
इंसान जहां से बौना नज़र आने लगा है॥इक्कीसवीं सदी में मानव कुछ ऐसा क़हर ढ़ाएगा।
चांद तो क्या वो धरती से भी उख़ड जाएगा॥डा. रमा द्विवेदी
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Posted by: डॉ. रमा द्विवेदी | दिसम्बर 11, 2006
पौरुष सिमट रहा है
संवेदना की अनुभूतिय में प्रकाशित किया गया
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बहुत सुन्दर रचना,
रमाजी कृपया इसे और वृह्त करने का प्रयास करें, अभी बहुत कुछ है जिसे इसकी परिधी में कैद किया जा सके.
आपकी पंक्तियाँ अन्दर तक चहल-कदमीं कर गई.
बधाई स्वीकार करें
By: गिरिराज जोशी on दिसम्बर 11, 2006
at 1:28 अपराह्न
कविता बढिया है। कृपया पूरी कविता को टैग की तरह न इस्तेमाल करें, बल्कि कुछ शब्दों पर इसका प्रयोग करें।
By: Pratik Pandey on दिसम्बर 12, 2006
at 4:51 अपराह्न