१- माया से कारोबार है,
माया से ही बाज़ार है।
माया कमाने के लिए,
माया का ही इश्तहार है॥२- माया से ही चूल्हा जले,
माया से ही माया हंसे।
माया से हर रिश्ते जुड़े,
माया के संग सब ही चलें॥३- माया को पाने वास्ते ही,
बेटी-बहिन देते हैं बेंच।
इक पदोन्नति के लिए,
पत्नी को कर देते हैं भेंट॥४- माया पहनाये वस्त्र भी,
माया उतारे वस्त्र भी।
माया से नाचे मल्लिका,
मंच पर निर्वस्त्र भी॥५- माया ने खुद को बेंच ड़ाला,
माया कमाने के लिए।
कोई विपाशा, मंदिरा कोई,
रूप क्या-क्या धर लिए॥(’माया’ की श्रृंखला में ‘माया’ शब्द अनेकानेक अर्थों में अभिव्यक्त हुआ है…..पाठकों से अनुरोध है कि वे उसके भाव में डूब कर आनन्द ले सकेंगे)
डा. रमा द्विवेदी
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Posted by: डॉ. रमा द्विवेदी | जून 11, 2007
” माया” श्रृंखला -४ ( कुछ मुक्तक)
माया-श्रृंखला में प्रकाशित किया गया
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सचमुच माया की माया अपरंपार है, बहुत ही सुन्दर मुक्तक।
बधाई आपको।
*** राजीव रंजन प्रसाद
By: राजीव रंजन प्रसाद on जून 11, 2007
at 7:12 पूर्वाह्न
बढ़िया सिरिज चल रही है, बधाई. 🙂
By: समीर लाल on जून 11, 2007
at 1:44 अपराह्न
राजीव जी व समीर जी,
उत्साहवर्धन के लिए बहुत बहुत आभारी हूं….
By: डा. रमा द्विवेदी on जून 12, 2007
at 2:44 अपराह्न
पूरी श्रृंखला में ‘माया’ शब्द को विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त करने से मुक्तक के कलेवर में
शब्द, अर्थ तथा रस तीनों ही बड़े सुंदर ढंग से संगुम्फित हो गए हैं।
मल्लिका, विपासा आदि सिने-अभिनेत्रियों का उल्लेख कर के वर्तमान स्थिति का भी
भान मिलता है जिसमें पश्चिमी देशों की सी आनंद की अनुभूति केवल आनुषंगिक है,
आनंदस्वरूप नहीं।
श्रृंखला-५ की प्रतीक्षा है!
By: महावीर on जून 16, 2007
at 6:10 अपराह्न
डा. रमा द्विवेदी….
आदरणीय शर्मा जी,
आपको ‘माया’ की यह श्रृंखला पसन्द आई …यह जानकर अच्छा लगा….आपका आशीष रहा तो बहुत जल्द ही ‘माया’ श्रृंखला-५ भी आ जायेगी…..सृजन की प्रेरणा प्रदान करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद….सादर…
By: ramadwivedi on जून 17, 2007
at 4:19 अपराह्न