Posted by: डॉ. रमा द्विवेदी | मार्च 3, 2009

हँसी ओठों पे लाते हैं

किसी से क्या बताएँ कि क्या-क्या हम छुपाते हैं,
ज़माने को दिखाने को हँसी ओठों पे लाते हैं।

बने खुदगर्ज़ वे इतने उन्हें सब चाहिए लेकिन,
वफ़ा उनकी है बस इतनी कि बिन सावन रुलाते हैं।

फ़क़त उनके रिझाने को दिखाते नूर चेहरे पर,
कहीं वे रूठ न जाएँ ये गम हमको सताते हैं।

तृषा अपनी बुझाने को बढ़ाते तिश्नगी मेरी,
नहीं मिलता है स्वातिजल पिऊ-पिऊ रट लगाते हैं।

यही ख़्वाहिश रही दिल की अंजुरि में चाँद आ जाए,
निशा रोई है शबनम बन सुबह वे मुस्कराते हैं ।

डा.रमा द्विवेदी
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प्रतिक्रियाएँ

  1. बहुत सुन्दर ग़ज़ल बनी है |

    विशेषकर यह शेर –

    यही ख्वाहिश रही दिल की अंजुरि में चाँद आ जाए,
    निशा रोई है शबनम बन सुबह वे मुस्कराते हैं ।

    सुन्दर रचना के लिए बधाई |

    अवनीश तिवारी

  2. बने खुदगर्ज़ वे इतने उन्हें सब चाहिए लेकिन,
    वफ़ा उनकी है बस इतनी कि बिन सावन रुलाते हैं।

    फ़कत उनके रिझाने को दिखाते नूर चेहरे पर,
    कहीं वे रूठ न जाएँ ये गम हमको सताते हैं।

    waah behtarin,dil khush ho gaya,sundar gazal

  3. बने खुदगर्ज़ वे इतने उन्हें सब चाहिए लेकिन,
    वफ़ा उनकी है बस इतनी कि बिन सावन रुलाते हैं।

    वाह! बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल है.

  4. अवनीश जी, महक जी एवं अल्पना जी,

    रचना पसन्द करने व अपने अमूल्य विचारों से अवगत करवाने के लिए आप सबका हार्दिक आभार…


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