किसी से क्या बताएँ कि क्या-क्या हम छुपाते हैं,
ज़माने को दिखाने को हँसी ओठों पे लाते हैं।
बने खुदगर्ज़ वे इतने उन्हें सब चाहिए लेकिन,
वफ़ा उनकी है बस इतनी कि बिन सावन रुलाते हैं।
फ़क़त उनके रिझाने को दिखाते नूर चेहरे पर,
कहीं वे रूठ न जाएँ ये गम हमको सताते हैं।
तृषा अपनी बुझाने को बढ़ाते तिश्नगी मेरी,
नहीं मिलता है स्वातिजल पिऊ-पिऊ रट लगाते हैं।
यही ख़्वाहिश रही दिल की अंजुरि में चाँद आ जाए,
निशा रोई है शबनम बन सुबह वे मुस्कराते हैं ।
डा.रमा द्विवेदी
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बहुत सुन्दर ग़ज़ल बनी है |
विशेषकर यह शेर –
यही ख्वाहिश रही दिल की अंजुरि में चाँद आ जाए,
निशा रोई है शबनम बन सुबह वे मुस्कराते हैं ।
सुन्दर रचना के लिए बधाई |
अवनीश तिवारी
By: अवनीश तिवारी on मार्च 3, 2009
at 10:48 अपराह्न
बने खुदगर्ज़ वे इतने उन्हें सब चाहिए लेकिन,
वफ़ा उनकी है बस इतनी कि बिन सावन रुलाते हैं।
फ़कत उनके रिझाने को दिखाते नूर चेहरे पर,
कहीं वे रूठ न जाएँ ये गम हमको सताते हैं।
waah behtarin,dil khush ho gaya,sundar gazal
By: mehek on मार्च 4, 2009
at 12:17 पूर्वाह्न
बने खुदगर्ज़ वे इतने उन्हें सब चाहिए लेकिन,
वफ़ा उनकी है बस इतनी कि बिन सावन रुलाते हैं।
वाह! बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल है.
By: alpana on मार्च 4, 2009
at 2:23 पूर्वाह्न
अवनीश जी, महक जी एवं अल्पना जी,
रचना पसन्द करने व अपने अमूल्य विचारों से अवगत करवाने के लिए आप सबका हार्दिक आभार…
By: ramadwivedi on मार्च 4, 2009
at 12:56 अपराह्न