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युवा उत्कर्ष साहित्यिक मंच (पंजीकृत न्यास) आंध्र प्रदेश एवं तेलंगाना राज्य शाखा की वर्चुअल पंद्रहवीं संगोष्ठी 28 अप्रैल 2024 (रविवार) 4 बजे से आयोजित की गई। 

डॉ. रमा द्विवेदी (अध्यक्ष, आंध्र प्रदेश एवं तेलंगाना राज्य शाखा) एवं महासचिव दीपा कृष्णदीप ने संयुक्त प्रेस विज्ञप्ति में बताया कि यह संगोष्ठी प्रख्यात चिंतक प्रो. ऋषभदेव शर्मा जी की अध्यक्षता में संपन्न हुई। बतौर विशिष्ट अतिथि प्रखर व्यंग्यकार श्री रामकिशोर उपाध्याय जी, सुप्रतिष्ठित साहित्यकार डॉ. मंजु शर्मा जी मंचासीन हुए। 

कार्यक्रम का शुभारंभ दीपा कृष्णदीप द्वारा प्रस्तुत सरस्वती वंदना के साथ हुआ। तत्पश्चात्‌ प्रदेश अध्यक्षा डॉ. रमा द्विवेदी ने अतिथियों का परिचय दिया एवं शब्द पुष्पों से अतिथियों का स्वागत किया। संस्था का परिचय देते हुए कहा कि यह एक वैश्विक संस्था है जो हिंदी साहित्य के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित है, साथ अन्य सभी भाषाओं के संवर्धन हेतु कार्य करती है। वरिष्ठ साहित्यकारों के विशिष्ठ साहित्यिक योगदान हेतु उन्हें हर वर्ष पुरस्कृत करती है। युवा प्रतिभाओं को मंच प्रदान करना, प्रोत्साहित करना एवं उन्हें सम्मानित करना भी संस्था का एक उद्देश्य है। अन्य क्षेत्रो की ललित कलाओं को प्रोत्साहित करना एवं सम्मानित करना संस्था का लक्ष्य है। 

विशिष्ट अतिथि एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष रामकिशोर उपाध्याय जी ने अपने बीज वक्तव्य में कहा कि “दर्शन में जो द्वंद्वात्मक भौतिक विकासवाद है, वही राजनीति में साम्यवाद है और वही साहित्य में प्रगतिवाद है। पूँजीवाद के बढ़ते प्रभाव के कारण श्रमिकों और कृषकों के उत्पीड़न और उनके भीतर चेतना का शंखनाद करने में साम्यवाद ने अपनी विशिष्ट भूमिका का निर्वाह किया है। 

मुंशी प्रेमचंद, रामेश्वर करुण से लेकर केदारनाथ अग्रवाल, डॉ रामविलास शर्मा, नागार्जुन, गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’, त्रिलोचन शास्त्री सहित अनेक कवियों और साहित्यकारों ने इस कालखंड में अपनी लेखनी के माध्यम से सामान्य जन, कृषक और श्रमिक, सर्वहारा वर्ग और हाशिये पर खिसके समाज की पीड़ा और संघर्ष को जहाँ मुखरित किया वहीं पूँजीवाद के क्रूर चेहरे को सामने लाने का महत्वपूर्व कार्य कर समाजवादी चेतना को आगे बढ़ाया। जीवन के कटु यथार्थ, व्यक्ति की दीन-हीन स्थिति और किसान और मज़दूर के प्रति सहानुभूति का चित्रण कर प्रगतिवादी साहित्यकारों ने अनेक कालजयी रचनाओं को जन्म दिया। पूँजीवाद के समाजवादी चिंतन की धारा को धार देने के लिए हिन्दी काव्य में प्रगतिवादी विचार धारा आज भी प्रासंगिक बनी हुई है।” 

काव्य में ‘प्रगतिवादी काव्य की सामान्य प्रवृत्तियाँ’ विषय परअपना सारगर्भित वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए मुख्य वक्ता डॉ. मंजु शर्मा ने कहा कि “मार्क्सवादी विचारधारा का साहित्य में उदय प्रगतिवाद के रूप में उदय हुआ। यह विचारधारा समाज को दो वर्गों में देखती है शोषक और शोषित। प्रगतिवादी शोषक या पूँजीपति वर्ग के ख़िलाफ़ एक आवाज़ है जो समाज के दूसरे तबक़े अर्थात्‌ शोषित या सर्वहारा वर्ग में चेतना लाने के लिए उठी। प्रगतिवादी विचारधारा शोषित वर्ग को संगठित कर समाज में चेतना लाने का काम कर रही थी। प्रगतिवाद इसी तरह धर्म की रूढ़िवादिता को दूर फेंक मानवता की अपरिमित शक्ति में विश्वास करता है। प्रगतिवादी कविता यथार्थ चित्रण पर बल देती है, कल्पना पर नहीं।” 

अपनी प्रतिक्रिया देते हुए सुप्रतिष्ठित साहित्यकार डॉ. राशि सिन्हा ने कहा कि “प्रगतिवाद एक ऐसी विचारधारा एवं एक ऐसा स्वस्थ दृष्टिकोण है जिसने विरोध के स्वर को काव्य बिंब में पिरोकर प्रगतिशील सृजन की एक ऐसी नींव डाली जिसने समाज में न सिर्फ़ साम्यवाद का उद्घोष किया, बल्कि आगे भी सृजन की चेतना में सामाजिक यथार्थ बोध-भावों को स्थापित किया। भाषाई चेतना को छायावाद के ‘सॉफिस्टिकेटेड’ प्रयोग से निकालकर रचनात्मकता के स्तर पर एक सर्वहारा प्रकृति की ओर उन्मुख कर नई कविता और आधुनिक काव्य सृजन को प्रभावित करते हुए नई राह दिखाई।” 

परिचर्चा के अध्यक्ष प्रो. ऋषभदेव शर्मा जी ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में सभी वक्तव्यों के सारांश पर अपनी महत्त्वपूर्ण टिप्पणी देते हुए कहा कि, “प्रगतिवाद का जन्म बीसवीं शताब्दी के चौथे दशक में तेज़ी से बदलती राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के प्रभाव से बदली भारतीय जनता की चित्तवृत्ति का सहज परिणाम था, जिसे मार्क्सवादी विचारधारा ने प्रेरित किया था। उन्होंने हिंदी की प्रगतिवादी कविता की प्रवृत्तियों की चर्चा करते हुए यह भी जोड़ा कि आज भले ही विश्व भर में साम्यवादी राज्य-व्यवस्था का प्रयोग असफल हो गया हो, एक आर्थिक दर्शन के रूप में मार्क्सवाद आज भी प्रासंगिक है; तथा जब तक समाज में वर्ग-भेद और वर्ग-संघर्ष विद्यमान है, तब तक प्रगतिवादी कविता भी क्रांति की प्रेरणा बन कर जीवित रहेगी।”

तत्पश्चात् काव्य गोष्ठी आयोजित की गई। उपस्थित रचनाकारों ने विविध विषयों पर सृजित सुंदर-सरस रचनाओं का काव्यपाठ करके वातावरण को ख़ुशनुमा बना दिया। श्रीमती विनीता शर्मा (उपाध्यक्ष) शिल्पी भटनागर, श्री रामकिशोर उपाध्याय, डॉ राशि सिन्हा, सरिता दीक्षित, डॉ. रमा द्विवेदी, ममता जायसवाल, डॉ. संगीता शर्मा, प्रियंका पाण्डे, रमा गोस्वामी, तृप्ति मिश्रा, इंदु सिंह, डॉ. स्वाति गुप्ता, सरला प्रकाश भूतोड़िया, दीपा कृष्णदीप सभी रचनाकारों ने बहुत उत्कृष्ट रचनाओं का पाठ किया तथा प्रो. ऋषभदेव शर्मा जी ने अध्यक्षीय काव्य पाठ में बहुत सुन्दर एवं सन्देश युक्त रचनाओं का पाठ किया किया एवं सभी की रचनाओं की सराहना करते हुए सभी को शुभकामनाएँ प्रेषित कीं। 

डॉ. आशा मिश्रा, रामनिवास पंथी (रायबरेली) दर्शन सिंह, सुभाष सिंह (कटनी) भावना मयूर पुरोहित, दीपक दीक्षित तथा राजेश कुमार सिंह श्रेयस (अध्यक्ष, युवा उत्कर्ष इकाई, लखनऊ) ने कार्यक्रम में अपनी उपस्थिति दर्ज की। 

प्रथम सत्र का संचालन शिल्पी भटनागर (संगोष्ठी संयोजिका) द्वितीय सत्र का संचालन दीपा कृष्णदीप (महासचिव) ने किया। डॉ. सुषमा देवी आभार प्रदर्शन से कार्यक्रम समाप्त हुआ। 

प्रेषक: डॉ. रमा द्विवेदी, अध्यक्ष (युवा उत्कर्ष) 

आदरणीया डॉ. रमा द्विवेदी जी की साहित्य जगत में एक विशिष्ट पहचान है। उनके तीन कविता संग्रह पूर्व में ही प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी लघु कथाएँ अनेक पत्र पत्रिकाओं में व फेसबुक के समूहों में प्रकाशित होतीं रहतीं हैं, तथा मैं उनका नियमित पाठक हूँ। 

“मैं द्रौपदी नहीं हूँ” लघुकथा संग्रह में कुल 134 पृष्ठ व 111 लघुकथाएँ हैं, जो सामाजिक विद्रूपताओं और विसंगतियों पर प्रहार करतीं हैं। लघुकथाओं की विषय वस्तु समाज में नित्य प्रति घटित होने वाली अपने आसपास की घटनाओं से ली गयी प्रतीत होती है। सभी लघुकथाएँ पठनीय व पाठक को सोचने पर विवश करके झकझोरने वालीं हैं। इन कथाओं के माध्यम से आज के समाज में महिला उत्पीड़न व इसके विरुद्ध आधुनिक नारी की बुलंद आवाज पाठक व समाज तक पहुँचाने में लेखिका पूर्णतः सफल रहीं हैं। इस संग्रह में गम्भीर विषयों के साथ कविता चोर, टैगियासुर, लिव इन संबंध, कोचिंग, श्रृंगार, कोरोना,सतयुग आ गया, प्री वेडिंग शूट, बैचलर पार्टी, पिंड दान, चुनाव प्रचार, मी टू, सरोगेसी इत्यादि समसामयिक व नैतिक विषय भी लेखिका की पैनी नज़रों से नहीं बच सके।

पुस्तक का शीर्षक पढ़कर ही पाठक के दिमाग में आज की शक्ति स्वरूपा व सक्षम नारी का प्रतिरोध का स्वर गूँज जाता है तथा पुस्तक की विषयवस्तु के बारे में पूर्वानुमान हो जाता है। “मैं द्रौपदी नहीं हूँ” एक ऐसी स्त्री की कथा है जो अपने आत्मसम्मान व इज़्ज़त की रक्षा हेतु घर में ही संघर्षरत है। उसका पति परदेश में है तथा देवर की उस पर बुरी नज़र है। लोकलाज के कारण यह बात वह गाँव व घर में किसी से नहीं कहती है। पति के अवकाश पर आने पर सारी बातें बताने के बावजूद उसका पति कह देता कि यह सब चलता है। तब वह आत्मविश्वास के साथ उद्घोष करती है कि “मैं द्रौपदी नहीं हूँ।” “खरीदी हुई औरत” नामक कथा में निर्धन व अशिक्षित समाज में स्त्री की खरीद फरोख्त को रेखांकित किया गया है। इस प्रकार की घटनाएँ कुछ लोगों को अविश्वसनीय लग सकतीं हैं, लेकिन कुछ क्षेत्रों में यह परंपराएँ व विसंगतियाँ आज भी हैं।

“लोभी गुरु लालची चेला”, “ठगुआ कवि”, “प्रशंसा का भूत”, हर धान बाइस पसेरी जैसी कुछ लघुकथाएँ सोशल मीडिया की विसंगतियों को इंगित करतीं हैं तो कुल गोत्र जैसी लघुकथा में आज के समाज में कुंडली मिलान के औचित्य का प्रश्न उठाया है। बुजुर्गों के प्रति बेटे बहुओं की क्रूरता व गैर जिम्मेदारी को रेखांकित करतीं ‘बहू से बचाओ’, ‘अपनी-अपनी विवशता’, व ‘सही निर्णय’ जैसी लघुकथाएँ भी इस संग्रह में हैं।

विद्वान लेखिका ने अपने ‘अंतर्मन के उद्गार’ में कहा है कि “इस लघुकथा संग्रह में नारी मन की पीड़ा, सामाजिक विसंगतियाँ, अंधविश्वास व रूढ़िवादी पंम्पराओं में पिसती स्त्री, जीवन की विभीषिकाओं व विडंबनाओं के साथ-साथ अत्याधुनिक युगबोध से उपजीं विसंगतियों, प्रश्नों एवं संभावित विमर्श को इसमें समाहित किया गया है।” यद्यपि यह लेखिका का प्रथम लघुकथा संग्रह है,किंतु अधिकांश लघुकथाएँ किसी न किसी विसंगति को उजागर करतीं हैं। 

यह पुस्तक पठनीय के साथ-साथ संग्रहणीय भी है। मुझे विश्वास है कि पाठकों द्वारा इस पुस्तक को पसंद किया जाएगा। विदुषी लेखिका आदरणीया डॉ.रमा द्विवेदी जी को हार्दिक बधाई व उनके उज्जवल भविष्य की कामना के साथ –

         -हरिओम श्रीवास्तव –

से.नि.वाणिज्यिक कर अधिकारी

            भोपाल, म.प्र.

वर्तमान पता- सिएटल,(वाशिंगटन)

 मोबाइल – +919425072932

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Posted by: डॉ. रमा द्विवेदी | फ़रवरी 28, 2024

मैं द्रौपदी नहीं हूँ  : युग बोध का प्रतिबिंबन

संप्रेषण,मानवीय चेतना का अनिवार्य सत्य है जिसे साहित्य के संदर्भ में हम  स्थूल से सूक्ष्म के निरुपण -यात्रा के तहत एक शाश्वत सत्य के रूप में देखते हैं। सत्य है, साहित्य के संदर्भ में यही मानवीय चेतना लघुतम संप्रेषण से संवहित हो अभिव्यक्ति के‌ माध्यम में रुपायित हो लघुकथा का रूप ले‌ लेती है। साहित्य की एक ऐसी स्वतंत्र  सशक्त , संप्रेषित विधा, जो रचना उद्यमिता के अंतर्गत,संवेदना को केंद्र में रखकर, अपने लघु रूप में होने के बावजूद, समकालीन समाज के संपूर्ण यथार्थ में व्याप्त,जीवन मूल्यों को उद्घाटित करने का माद्दा रखती है। कथाकार,रमा द्विवेदी जी की पुस्तक , “मैं द्रौपदी नहीं हूं” इन्ही जीवन मूल्यों के उद्घाटन की अगली कड़ी है। शब्दांकुर प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित,133‌ पृष्ठों के इस  पुस्तक में ,कुल मिलाकर 102 लघुकथाओं का संकलन है । 

      मैं  द्रौपदी नहीं हूं, शीर्षक नाम से

मुद्रित इस पुस्तक में,द्रौपदी के पौराणिक मिथक में सामाजिक चेतना भरती कहानी की नायिका मिथकीय युग का आह्वान कर , इतिहास के पन्ने को फिर से पलटने के लिए नहीं बल्कि उसमें स्त्री सत्ता के सशक्त निर्णयात्मक भाव का प्रतिनिधित्व कर आधुनिक संदर्भ में उसी इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ने को तैयार है। शीर्षक में परिलक्षित यह स्त्री  पुरुष सत्तात्मक समाज के छल‌ बल  को स्वीकार कर  उसके दैहिक साम्राज्य पर पुरूष की गंदी घिनौनी सत्ता को स्वीकार करने को बिल्कुल तैयार‌ नहीं। वह अपनी अस्मिता के लिए पुरुष -तंत्रों की ओर प्रश्नों की लड़ी लिए सिसकती चित्कारती स्त्री नहीं बल्कि, संपूर्ण सशक्तता से समाधान के साथ तैयार‌ खड़ी स्त्री है जो संघर्षों का सामना करने के  लिए तैयार है ,अकेली तैयार है ,पूरी तरह तैयार है । 

            अपने मूल‌ में, समसामयिक समाज के यथार्थ -पयोधियों और सरिताओं के कड़वे मीठे, बूंदों को जीवन मूल्यों की गगरी में भरता यह रमा द्विवेदी जी का यह लघुकथा संकलन, समाज के सभी वर्गों में व्याप्त क्षरण को ,फिर चाहें वे पारिवारिक हों या राजनीतिक, सामाजिक हों या धार्मिक या फिर सांस्कृतिक  सभी चेतनाओं के बिखरे -टूटे,खंडित होते प्रतिबिंबों को एक साथ जोड़ने की सफल कोशिश की है। समाज के व्यक्तियों की दायित्वहीनता को केंद्र में रखकर , मानवीय मूल्यों में आई गिरावट,उनके सैद्धांतिक और वैचारिक दृष्टिकोणों में आए अंधेपन की शिथिलता को यूं एक जगह समेटकर ,इतनी सरलता से पाठकों के मध्य‌ रखे इस संकलन की सभी कहानियों में युग चेतना का बोध है। फिर चाहे वह पौराणिक मिथक को सामाजिक चेतना से जोड़ती कहानी , मैं द्रौपदी नहीं हूं हो या फिर साहित्य में व्याप्त बाजारीकरण को उजागर करने के उद्देश्य से लिखी लघुकथा , ठगुआ कवि ,लोभी गुरू लालची चेला ,कविता चोर,सरतार बनिया, नून चबेना  ,संपादक,मूल लेखक कैसे ,रिमार्क हो। सभी युग बोध की अभिव्यक्ति से अभिषिक्त हैं। हालांकि यहां सभी लघुकथाओं को विश्लेषित कर पाना मुश्किल होगा, फिर भी मैं कुछ लघुकथाओं की चर्चा अवश्य करना चाहूंगी।स्त्री विमर्श के केंद्र में लिखी लघुकथा खरीदी हुई औरत ,कागज का पुर्जा,नियति का खेल,अहंकार ,व्रत की विवशता, गिरावट, चिंतन और‌ चुनौती, राज खुल गया यह सभी पित्रसत्तात्मक व्यवस्था के संस्कारों को उद्धृत करते प्रतीत होते हैं। समय की नब्ज को समझतीं,महसूस करतीं और उसे गहराई से थाम कर रखीं इस संकलन की लेखिका, रमा द्विवेदी की अन्य कथाएं यथा ; क्या बताऊं यार, दहशत , धोखे कैसे कैसे जहां एक ओर समसामयिक विवाह संस्था के लिए चुनौती बनी समलैंगिक संस्कृति को पाठकों के समक्ष रखा है तो वहीं समाज के मूल‌ तबके की विकृत मानसिकता को भी बहुत सशक्तता से पटल पर रखा है। विध्वंसकारी पोर्न   समलैंगिक संस्कृति से टूटते रिश्तों के माध्यम से उन्होंने पाठकों को यथार्थोन्मूख बनाने की कोशिश की है। समसामयिक कहानियों की बात करें तो कोरोना संक्रमण को लक्षित कर लिखी लघुकथाएं यथा; श्रृंगार की जरूरत क्या है,कोरोना से प्रश्न काफी महत्वपूर्ण संवाद करते नजर आते हैं। एक्सचेंज मैरिज ,दूल्हे की बोली,नोट-शराब और खाना ,हंसना मना है , मदिरालय खुल गए अपनी अपनी विवशता , ललचाई नजरें और टैगियासुर जैसी सभी लघुकथाओं में आज के समाजिक चेतना की प्रकृति में ह्रास होते संदर्भ दिखाई देते हैं बल्कि क्षणभंगुर उपलब्धयों के लिए बेसब्र होते मानव की मनोवैज्ञानिक विकृतियों का दस्तावेज भी प्रस्तुत होता दिखता है।

     कुल मिलाकर देखें तो लेखिका रमा द्विवेदी अपनी इस संकलन की समस्त लघुकथाओं की बुनावट में, न सिर्फ रचना उद्यमिता के उद्देश्यों को लेकर सजग और सतर्क दिखाई देतीं हैं बल्कि वे कथा के अनुसार शिल्पों और‌ भाषाई प्रबंधन में भी एक जिम्मेवार लेखक की भूमिका का निर्वाह करती प्रतीत होतीं हैं ।यही कारण है कि पाठक सरलता से उनकी रचनात्मक तरंगों के साथ प्रवाहित होते चले जातें हैं।विविध विषयों के विभिन्न लघुकथाओं के संप्रेषण और संकलन में ,मानव मूल्यों की पुनर्स्थापना के क्रम में ,लेखिका ,रमा द्विवेदी जी लघुकथा लेखन की चुनौतियों का न सिर्फ बड़ी सावधानी से सामना करती हुईं दिखती हैं बल्कि इनके माध्यम से  सामाजिक चेतना मे विलुप्त होते जीवन मूल्यों को पुनः स्थापित करने हेतु भी प्रयासरत दिखती हैं  । निश्चित रूप से,” मैं द्रौपदी नहीं ”  मानव मूल्यों को पुनर्स्थापित करने की एक सफल कोशिश है।

उनकी सफल और सशक्त रचनाधर्मिता के लिए हार्दिक शुभकामनाएं

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डॉ.राशि सिन्हा

नवादा, बिहार

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अपने जीवन में व्यक्ति जब-जब भी स्वयं से संवाद करता है तो उसका अन्तस् उजास के पथ की ओर संकेत करता है जहाँ वह आस की किरण का पुँज सामने पाता है। यही आस उसके आत्मविश्वास में जुम्बिश पैदा करती है और वह जीवन की सच्चाइयों के साथ दृढ़ता पूर्वक साक्षात्कार करता हुआ सकारात्मक पहल करता है।

इन्हीं सन्दर्भों को अपनी सृजन यात्रा में उजागर करती रचनाकार डॉ. रमा द्विवेदी का लघुकथा संग्रह ‘ मैं द्रौपदी नहीं हूँ ‘ ऐसा संग्रह है जिसमें सामाजिक ताने-बाने की गहराई से पड़ताल की गई है।

एक सौ ग्यारह लघुकथाओं का यह संग्रह इस बात को उभारता है कि बदलते समाज की बदलती प्रवृत्तियाँ मनुष्यता के भावों को लील कर सामाजिक संरचना के विविध पक्षों को गहराई से प्रभावित कर रही हैं। वहीं समाज की महत्वपूर्ण इकाई परिवार और उसके सदस्य इन प्रवृत्तियों के पाश में जकड़ते चले जा रहे हैं। 

प्रथम लघुकथा ‘मैं द्रौपदी नहीं हूँ’ इस संग्रह की शीर्षित कथा है जो सामाजिक-पारिवारिक विडम्बना और विद्रूपता को सामने लाकर अपने समय से जूझती नारी के सम्मान और अस्तित्व पर पसरे असहिष्णुता के अन्धकार को दर्शाती है। वहीं ‘विडम्बना’ कथा यथानाम एक सहज प्रश्न की विस्तृत व्याख्या है कि – ‘ खाली घड़ा लेकर हम औरतें क्या चाँद की ओर ताक-ताक कर अपनी और घरवालों की प्यास बुझायेंगे?’ 

संग्रह की अधिकांश कथाएँ पारिवारिक परिवेश से सन्दर्भित हैं जिनमें विवाह और विवाह के बाद के आन्तरिक संघर्षों का सहज चित्रण किया गया है। वहीं कुछ कथाओं में कोरोनाकाल की त्रासदी और उससे उपजी मानसिकता का विवेचन उभर कर आया है। लघुकथाकार ने अपने समय की नब्ज़ देख कर सोशियल मीडिया से सन्दर्भित कथाओं को बुना है जिसमें से ‘टैगियासुर’ एक है।  

सामाजिक -पारिवारिक सन्दर्भों के साथ ही इस संग्रह में राजनैतिक परिवेश का भी बख़ूबी चित्रण हुआ है। यही नहीं साहत्यिक परिवेश को भी यह संग्रह शिद्दत से प्रस्तुत करता है। ठगुआ कवि, साहित्यिक विदेश यात्रा मुफ़्त , मेरा नाम नहीं, क्यों, हर धान रुपये में बाइस पसेरी, सम्पादक, मूल लेखक कैसे, रिमार्क, कविता चोर, मानद उपाधि तथा धंधा ऐसी ही लघुकथाएँ हैं जिनमें लेखक और लेखन की प्रवृत्तियों को बारीकी से सन्दर्भानुरूप विवेचित तो किया ही है साथ ही इन लघुकथाओं की एक विशेषता यह है कि ये सहज होते हुए भी सामाजिक यथार्थ को सरलता से रेखांकित करती चली जाती हैं । साथ ही सामाजिक सरोकारों को सामने लाकर नारी चिंतन के स्वर को मुखरित करती हैं । 

महासागर में उछालें मारती लहरें तथा नवनीत से उभरते झाग और इनके भीतर की गहराइयों को अनुमानित करने की मुद्रा में नारी का अंकन संग्रह के मुख पृष्ठ पर भावपूर्ण रूप से उभरा है। यह वह नारी है जिसके मन के भीतर के वैचारिक सागर की लहरें भी उछलते हुए चेतना के स्तर से चिंतन के विविध आयामों तक उसे यात्री बनाये रखती हैं । ऐसा यात्री जो जीवन के हर पड़ाव पर संघर्ष और विमर्श के साथ आगे बढ़ता रहता है। यह है तो संग्रह का मुख पृष्ठ तथापि भीतर के पृष्ठों में उभरे भाव और विचारों का कोलाज भी है। 

अन्ततः यही कि संवेदनाओं के पथ पर उभरे स्वरों की अनुभूति से शब्दाकार हुई ये कथाएँ अपने समय को सूक्ष्म रूप से विवेचित करती हैं।

विजय जोशी

174 – बी, आरकेपुरम,सेक्टर बी,

कोटा-324010(राजस्थान)

मोबाईल 9460237653

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