Posted by: डॉ. रमा द्विवेदी | अप्रैल 28, 2007

घर क्या-क्या नहीं होता?

                 घर सिर छिपाने के लिए भी होते हैं
                 घर रिश्ते बनाने के लिए भी होते हैं।
                 घर क्या-क्या नहीं होता?
                 घर ज़िन्दगी जलानें के लिए भी होते हैं।

                 घर में ही जन्नत भी होती है,
                 घर से ही जीवन में रंगत भी होती है।
                 घर में ही ज़िन्दगी सिसकती हैं यहां,
                 घर में ही ज़िन्दगी दफ़न भी होती है॥

                 घर ही नहीं बिकते यहां,
                 इनमें रहने वाले भी बिक जाते हैं।
                 रोज होता है सौदा ज़िन्दगी का यहां,
                 घर में रहने वाले हैवान भी बन जाते हैं॥

                 घर ज़िन्दगी क रक्षक भी है,
                 घर ज़िन्दगी का भक्षक भी है।
                 घर क्या-क्या नहीं निगल जाता,
                 घर ज़िन्दगी  का तक्षक भी है॥

                       डा. रमा द्विवेदी
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प्रतिक्रियाएँ

  1. बिना घरवाली के घर नहीं, सिर्फ मकान होता है।
    बिना आत्मा के शवों से भरा श्मसान होता है।
    यदि घरवाली सही, सुलक्षणी है घर स्वर्ग बना देती है।
    यदि वही वैसी है तो सारे घर को घोर रौरव बना देती है।

  2. सारा आलम यह सारा जगत संसार घर ही तो है
    जिसे बनाया शायद सबसे बड़े पागल ने…और
    मिट्टी भी उड़ाई और लपेटा भी सबको…
    रहने बाले यहाँ के उपवन को निचोड़ कर
    बस पिये जा रहे हैं आराम से…अपने ही आसन को
    आग लगा रे हैं आरान से…।
    यह कविता एक दर्शन है जो मानवीय गुण की
    ओर इंगीत कर रहे हैं…हमें इसे क्यों और कैसे
    बनाया जाये…।

  3. हरीराम जी, घर सिर्फ घरवाली से ही नहीं बनता इसमें घरवाला और अन्य लोग भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं….आभार सहित…

    दिव्याभ जी, दुनिया बनाने वाले ने बना दी लेकिन हम क्या कर रहें हैं इस दुनिया को सुन्दर बनाने के लिए…….यह ज्यादा महत्वपूर्ण है…..आपके विचार जानकर अच्छा लगा…..शुक्रिया…

    डा. रमा द्विवेदी

  4. gambhir kavita hai, bina gharon ke logo ke marm ko chhuti hai

  5. Pratham to aapka mere blog me swaagat hai……aapane apane vichaar preshit kiye usake liye Bahut bahut shukriya Bhuvan ji….


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